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Some Published Research Papers Authored By Saroj Bala

1. श्रीराम सांस्कृतिक शोध संस्थान के लिए 26 नवम्बर 2023 को लिखा भाषण

श्रीराम कथा सितारों से सुनिए
(राम जी के जीवन की घटनाओं की सटीक तिथियाँ ग्रहों-नक्षत्रों की स्थितियों को प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेर
के माध्यम से सुनिश्चित किया गया हैं)

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‘रामायण’ आदिकवि महर्षि वाल्मीकि द्वारा श्रीराम के जीवनकाल के दौरान रचित मूल महाकाव्य है। वाल्मीकि जी ने हजारों वर्ष पहले इस महाकाव्य की रचना की थी। उन्होंने ‘रामायण’ में तेजस्वी तथा मनस्वी श्रीराम के जीवन चरित्र का वास्तविक एवं रोचक वर्णन किया है। यह एक ऐसी अद्वितीय रचना सिद्ध हुई कि पिछले हजारों वर्षों से विश्व भर के करोडों लोगों ने रामायण की कहानी का लेखन और पठन, चित्रण और गायन, अनुवाद और मंचन इतनी बार किया कि यह एक जीवन्त परंपरा तथा जीवन्त विश्वास बन गई।

सबसे पहले 20वीं सदी के महानतम वैज्ञानिक डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम ने कहा था, ‘‘रामायण का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि वाल्मीकि जी ने महाकाव्य रामायण की रचना करते समय उसमें बहुत से प्रमाण सम्मिलित किए। एक तरफ उन्होंने उस समय पर आकाश में ग्रहों एवं नक्षत्रों की स्थिति एवं बहुत से स्थलों का भौगोलिक चित्रण एवं ऋतुओं का वर्णन किया है, तो दूसरी ओर राजाओं की वंशावलियों के बारे में विस्तृत जानकारी दी है जिसका वैज्ञानिक विधि से प्रयोग करके उन घटनाओं का समय ज्ञात करना कोई टेढ़ी खीर नही है। आधुनिक तारामंडल सॉफ्टवेयर का उपयोग करके खगोलीय गणनाओं ने यह सिद्ध किया है कि वाल्मीकि रामायण में वर्णित घटनाएं वास्तव में 7000 वर्ष पूर्व उसी क्रम में घटित हुई थीं जैसाकि रामायण में वर्णित हैं। रामसेतु उसी स्थान पर जलमग्न पाया गया है जिस स्थान का वर्णन रामायण में किया गया हैं”।

प्रस्तुत लेख में केवल ग्रहों-नक्षत्रों की स्थितियों को आकाश में हू-बी-हू दिखाकर मरामायण की महत्वपूर्ण घटनाओं की सटीक तिथियाँ निर्धारित किया गया है; इन्हें 25920 वर्ष में द्वारा नहीं देखा जा सकता ।

श्रीराम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न का जन्म तथा उस समय के आकाशीय दृश्य

प्लैनेटेरियम तथा स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर का उपयोग कर रामायण के खगोलीय संदर्भों के व्योमचित्र लिये गए। श्रीराम का जन्म आज से लगभग 7100 वर्ष पहले अयोध्या में ही हुआ, इस तथ्य के अनेकों वैज्ञानिक प्रमाण हैं। पु़त्रकामें ष्टि यज्ञ समाप्ति के पश्चात् छह ऋतुएं बीत जाने के बाद, 12वें मास में चैत्र शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र एवं कर्क लग्न में कौशल्या देवी ने दिव्य लक्षणों से युक्त एक यशस्वी और प्रतिभाशाली पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम ‘राम‘ रखा गया। बालकाण्ड में महर्षि वाल्मीकि ने श्रीराम के जन्म के समय देखी गई ग्रहों, राशियों और नक्षत्रों की स्थितियों का विस्तृत वर्णन दिया है। उस समय चन्द्रमा पुनर्वसु नक्षत्र में था और-

  1. सूर्य अपने उच्च स्थान में ष में
  2. शुक्र अपने उच्च स्थान मीन में
  3. मंगल अपने उच्च स्थान मकर में
  4. शनि अपने उच्च स्थान तुला में
  5. बृहस्पति अपने उच्च स्थान कर्क में
  6. चैत्र माह, शुक्ल पक्ष
  7. अमावस्या के पश्चात् नवमी तिथि
  8. चन्द्रमा और बृहस्पति एक साथ कर्क में चमक रहे थे
  9. कर्क राशि पूर्व से उदय हो रही थी।

इन सभी खगोलीय विन्यासों को प्लेनेटेरियम के अनुसार अयोध्या के अक्षांश और रेखांश से 10 जनवरी 5114 वर्ष ई. पू. को दोपहर 12 बजे से 2 बजे के बीच के समय में देखा जा सकता था। स्टेलरियम यही आकाशीय दृशय 19 फरवरी 5114 ईसा पूर्व (40-41 दिन बाद) को दर्शाती है। यह चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि थी और उस दिन समस्त भारत में आजतक रामनवमी मनाई जाती है।

व्योमचित्रः अयोध्या / भारत 27o उत्तर, 82o पूर्व; 10 जनवरी, 5114 ई. पू., 12:30 बजे, चैत्र शुक्ल नवमी

श्रीराम के जन्म के पश्चात् कैकेयी ने सत्य पराक्रमी भरत को पुष्य नक्षत्र और मीन लग्न में चैत्र शुक्ल दशमी को लगभग 4:30 बजे जन्म दिया। इसके पश्चात् सुमित्रा के दो पुत्रो लक्ष्मण और शत्रुघ्न का जन्म अश्लेषा नक्षत्र और कर्क लग्न में 11:30 बजे हुआ।

इस प्रकार श्री राम के जन्म से 2 वर्ष पहले अर्थात 5116 ईसापूर्व से लेकर लंका पर चढ़ाई करने हेतु किष्किन्धा से रामेश्वरम तक की यात्रा (5076 ईसापूर्व) के 12 क्रमिक आकाशीय दृश्य पुस्तक रामायण की कहानी, विज्ञान की ज़ुबानी तथा इसके अंग्रेजी संस्करण में दिए गए हैं । पाठक 5114 वर्ष ई.पू. की चैत्र-शुक्ल नवमी को श्रीराम के जन्म के समय पांच ग्रहों को अपने अपने उच्च स्थान में आकाश में चमकते हुए अयोध्या से देख कर आनंदित हो सकते हैं। अशोक बटिका में जब रावण सीता को द्र-धमका रहा था, उस समय लाँक के आकाश में ग्रहण से ग्रसित चंद्रमा को उदित होता देख कर अचंभित भी हो सकते हैं।

2. पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड के एम.डी. और पतंजलि योगपीठ हरिद्वार के सह-संस्थापक आचार्य
बालकृष्ण जी को भेजा गया लेख
(22.9.2020)

महाभारत की कहानी, विज्ञान की जुबानी – लेख का सार

लेखिका – सरोज बाला

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वेदों तथा महाकाव्यों में निहित भारतवर्ष की प्राचीन ऐतिहासिक घटनाओं का तिथिकरण आधुनिक वैज्ञानिक साक्ष्यों के आधार पर सटीक तथा सही ढंग से किया जा सकता है । ऋग्वेद के खगोलीय सन्दर्भ 7000 वर्ष ई.पू. से 5500 वर्ष ई.पू. के आसपास आकाश में देखें जा सकते थे जबकि रामायण के इन संदर्भों को 5100 वर्ष ई.पू. में क्रमिक रूप से आकाश में देखा जा सकता था । महाभारत में वर्णित ग्रहों तथा नक्षत्रों की स्तिथियों को 3153 ई.पू. से 3102 ई.पू. के बीच में प्लैनेटोरियम के माध्यम से दर्शाए गए आकाशीय चित्रों में क्रमिक रूप से हुबहू देखा जा सकता है । इन तिथियों के सही निर्धारण के लिए निम्नलिखित विधि को अपनाया गया –

  1. नौ खण्डों में छपी परिमल प्रकाशन की महाभारत तथा गीता प्रेस गोरखपुर की महाभारत में शामिल लगभग एक लाख आठ हजार श्लोको का अध्ययन कर, उनमें से खगोलीय संदर्भो वाले सभी श्लोकों को क्रमिक रूप से उद्धृत किया गया । संस्कृत विद्वानों तथा शब्दकोशों की सहायता से उनका सही अनुवाद किया गया । इनमे से जो श्लोक श्री सुक्थांकर के क्रिटिकल संस्मरण में भी शामिल थे उन्हें सटीक तथा क्रमिक तिथिकरण के लिये चुन लिया गया।
  2. सभापर्व, वनपर्व, उद्योग पर्व, भीष्म पर्व, शल्य पर्व, अनुशासन पर्व तथा मौसल पर्व से उद्-धृत इन खगोलीय सन्दर्भों की तिथियाँ तारामण्डल सॉफ्टवेयर (प्लैनेटेरियम गोल्ड तथा स्टेलरियम) का उपयोग कर क्रमिक रूप से दर्शाये आकाशीय दृश्यों के माध्यम से निकाल ली गई। पिछले 130 वर्षों में लगभग सभी विद्वानों द्वारा निर्धारित तिथियों का अध्ययन कर उन में देखी गईं कमियों तथा विसंगतियों को दूर कर पूर्णतः विश्वसनीय तथा व्यापक तिथिकरण किया गया । (इनमें श्री नरहरि आचार, श्री अशोक भटनागर, श्री निलेश ओक तथा श्री आयंगार द्वारा किया गया तिथिकरण शामिल है)।
  3. वनपर्व के सन्दर्भों से पता चला कि उन दिनों नक्षत्रो की गणना रोहिणी से शुरू होती थी क्योंकि रोहिणी वसंतविषुव पर था। खगोलशास्त्र के अनुसार 72 वर्ष में वसंत विषुव् का एक डिग्री से अग्रगमन होता है । आज वसंत विषुव पूर्व भाद्रपद के तीसरे चरण में है, जिसका अर्थ है कि महाभारत के पश्चात् विषुव का अग्रगमन 5.25 नक्षत्रों का है (रोहिणी, कृत्तिका, भारनी, अश्वनि, रेवती, उत्तर भाद्रपद ) । एक नक्षत्र के अग्रगमण में लगभग 960 वर्ष (25920 वर्ष ÷ 27 नक्षत्र) लगते हैं । इससे यह निर्धारित हो गया कि महाभारत के संदभों के तिथिकरण के लिए 5040 वर्षों (960×5.25) से पहले के समय को ढूँढ़ना होगा।
  4. भीष्म पर्व के अध्याय 2 तथा 3 सभी विद्वानों के लिए चुनौती पेश करते रहे हैं । शायद इसका कारण प्राचीन किताबों में अनुवाद की विसंगतियों से सम्बंधित है। जब इनका सही व् सटीक अनुवाद किया गया तो सॉफ्टवेयर के माध्यम से ऐसे आकाशीय दृश्य उपलब्ध हुए जिनमें न तो कोई कमी थी, न विसंगति । मेरे इस लेख में भीष्म पितामह के महाप्रयाण से एक दिन पहले माघ शुक्ल सप्तमी अर्थात 19 दिसम्बर, 3139 ई.पू. का आकाशीय दृश्य तथा युद्ध पूर्व कार्त्तिक अमावस्या के सूर्यग्रहण से छः घंटे पहले सभी खगोलीय संदर्भों को दिखाने वाला 14 सितम्बर, 3139 ई.पू. का आकाशीय दृश्य, इतने सही, सटीक तथा खास हैं कि पिछले 20000 वर्षों में किसी अन्य तिथि को दोहराये नहीं गये हैं; 5561 ई.पू., 3067 ई.पू., 1792 ई.पू., या 1472 ई.पू. में भी नहीं।
  5. 3153 ई.पू. से 3101 ई.पू. के बीच के 52 वर्षों की अवधि के सभी ग्यारह आकाशीय दृश्य महाभारत के संदर्भों से हूबहू मिलते हैं तथा आन्तरिक रूप से संगत तथा क्रमिक रूप से सही हैं। इन सभी खगोलीय संदर्भों को स्टेलरियम सॉफ्टवेयर के आकाशीय दृश्यों से भी प्रमाणित किया गया । अनेकों वैज्ञानिक साक्ष्यों, जिनमें शामिल हैं पुरातत्त्व, पुरावनस्पति, समुद्र विज्ञान, पुरा-पर्यावरण, उपग्रह चित्र, आनुवंशिक अध्ययन आदि, ने इन खगोलीय तिथियों का पुष्टिकरण किया है।
  6. महाभारत के युद्ध में कौरवों तथा पाण्डवों की ओर से भाग लेने वाले जनपदों तथा महाजनपदों को दर्शाते हुए एक नक्शा तैयार किया गया है जो दर्शाता है कि भारतवर्ष 5000 वर्ष पहले एक राष्ट्र भी था तथा उसकी परिभाषित व विशाल सीमाएं भी थीं। महाभारत के खगोलीय संदर्भों के कुछ महत्त्वपूर्ण आकाशीय दृश्यों की सूची यहाँ दी गई है।

महाभारत के खगोलीय संदर्भो के क्रमिक आकाशीय दृश्य, खगोलीय तथा ऐतिहासिक तिथियों सहित

दिनांक / खगोलीय
 वर्ष ई. पू.

संदर्भ

ऐतिहासिक
वर्ष ई.पू.

घटना का विवरण/आकाशीय दृश्य 

प्लैनेटेरियम:
18 नवम्बर, 3153 ई.पू.; 23:50 बजे / हस्तिनापुर
स्टेलेरियम:
15 दिसम्बर, 3153 ई.पू.; 1:42

महाभारत
सभा पर्व 2/80/29

3154

द्यूतक्रीडा में हारने के बाद पांडवो के 13 वर्ष के
बनवास पर जाते समय हस्तिनापुर से देखा गया
सूर्य ग्रहण; युद्ध से लगभग 14 वर्ष पूर्व ।

प्लैनेटेरियम :
31 अगस्त, 3139 ई.पू.; 11:10 बजे / हस्तिनापुर
स्टेलेरियम :
26 सितंबर, 3139 ई.पू.; 13:56

भीष्म पर्व 6/2/23

3140

युद्ध से पहले कार्तिक पूर्णिमा को देखा गया
चन्द्र ग्रहण, जिसके बाद 14वीं चंद्रतिथि को
सूर्यग्रहण दिखाई दिया ।

प्लैनेटेरियम:
14 सितम्बर, 3139 ई.पू.; 22:15 बजे / हस्तिनापुर
स्टेलेरियम:
11 अक्टूबर, 3139 ई.पू.; 23:32

भीष्म पर्व 6/2/23 एवं 6/3/32

3140

चंद्रग्रहण के बाद 14वीं चंद्रतिथि में कार्तिक
अमावस्या के दिन लगभग सूर्यग्रहण जैसा
दृश्य दिखाई दिया (परिशिष्ट 1 में हज़ारों वर्ष
पूर्व देखे गए ग्रहणों संबंधी अनिश्चितताओं का
सन्दर्भ लें)

प्लैनेटेरियम:
14 सितम्बर, 3139 ई.पू.; 18:30 बजे / हस्तिनापुर
स्टेलेरियम:
10 अक्टूबर, 3139 ई.पू.; 19:50

भीष्म पर्व 6/3/14-18

3140

सूर्यग्रहण से छ: घंटे पहले का आकाशीय दृश्य-
वक्र गति में मंगल अपने घर मेष में, बृहस्पति श्रावण नक्षत्र (मकर राशि) में है। शनि स्कोर्पियस से उत्तर फाल्गुनी (सिंह राशि) को पीड़ित कर रहा है। शुक्र कन्या राशि (विर्गो) में स्थित हो 7वीं राशि मीन (पाइसेज) को आक्रांत कर रहा है। बुध तथा केतु स्कॉर्पियस में इंद्र के ज्येष्ठा नक्षत्र को पीड़ित कर रहे हैं। शनि, सूर्य एवं चन्द्रमाँ स्कॉर्पियस से सातवीं राशी वृषभ में रोहिणी को पीड़ित कर रहे हैं। बृहस्पति (पावकप्रभा) ब्रह्मराशि अर्थात मकर राशि में श्रावण के आसपास विचरण कर रहे हैं ।

प्लैनेटेरियम :
25 सितम्बर, 3139 ई.पू.; 06:10 बजे / जयपुर
स्टेलेरियम:
21 अक्टूबर, 3139 ई.पू.; 18:00

उद्योग पर्व 5/83/6-7

3140

कार्तिक मास के रेवती नक्षत्र में श्री कृष्ण शांति
प्रस्ताव लेकर उपप्लव्य (राजस्थान) से हस्तिनापुर
की ओर चल पड़े। उन दिनों शरद ऋतु का अंत और
हेमंत ऋतु का आरम्भ हो रहा था

प्लैनेटेरियम:
3 अक्टूबर, 3139 ई.पू.; 06:10 बजे / कुरुक्षेत्र
स्टेलेरियम:
29 अक्टूबर, 3139 ई.पू; 19:00

शल्य पर्व 9/34/5-6, 5/142/17-18

3140

दुर्योधन ने शांति प्रस्ताव ठुकराया; तत्पश्चात
निष्पक्ष रहने की इच्छा से बलराम पुष्य नक्षत्र
में 42 दिन की तीर्थ यात्रा पर चले गए। 

प्लैनेटेरियम:
13 अक्टूबर, 3139 ई.पू.; 08:30 बजे / हस्तिनापुर
स्टेलेरियम:
8 नवम्बर, 3139 ई.पू.; 6:00

उद्योग पर्व 5/142/17-18

3140

मार्गशीर्ष (हेमंत ऋतु) की ज्येष्ठ अमावस्या (चन्द्रमा
वृश्चिक राशि में) को महाभारत का युद्ध प्रारंभ हो
गया। इसी दिन युद्ध से पहले श्री कृष्ण ने गीता का
महान उपदेश अर्जुन को दिया, जिसे ठीक ग्यारह दिन
बाद मार्गशीर्ष की शुक्ल पक्ष की एकादशी को संजय
ने धृतराष्ट्र को सुनाया

प्लैनेटेरियम:
14 नवम्बर, 3139 ई.पू.;  06:50 बजे / कुरुक्षेत्र
स्टेलेरियम:
10 दिसम्बर, 3139 ई.पू.; 6:15

शल्य पर्व 9/34/5-7

3140

युद्धारम्भ के 18वें दिन शल्यवध के पश्चात 31 अक्टूबर,
3139 ई.पू. को युद्ध समाप्त, परन्तु दुर्योधन द्वैपायन
झील में छुपे। 3 अक्टूबर के बाद 42वें दिन अर्थात 14
नवम्बर (स्टेलेरियम के अनुसार 10 दिसम्बर, 3139
ईसापूर्व) को बलराम श्रावण नक्षत्र में वापिस आये;
गदायुद्ध में भीम ने दुर्योधन का वध कर दिया ।

प्लैनेटेरियम:
19 दिसम्बर, 3139 ई.पू.; 07:20 बजे / कुरुक्षेत्र
स्टेलेरियम:
14 जनवरी, 3138 ई.पू.; 15:00

अनुशासन पर्व 13/167/26-28
शांति पर्व 12/47/3

3140

माघ शुक्ल सप्तमी रोहिणी नक्षत्र में उत्तरायण
का प्रारंभ।  अगले दिन भीष्म पितामह का
58 दिन शरशैय्या पर लेटने के बाद महाप्रयाण।

प्लैनेटेरियम:
26 जनवरी, 3138 ई.पू.; समय 18:00 बजे /
स्टेलेरियम :
22 फरवरी, 3138 ई.पू.; 06:00

अश्वमेधिका
पर्व
14/72/4

3139

  युधिष्ठिर द्वारा अश्वमेध यज्ञ की तैयारियों का
प्रारम्भ – चैत्र मास की पहली पूर्णिमा वाले
दिन यज्ञ का घोड़ा अर्जुन के संरक्षण में छोड़ा
गया

प्लैनेटेरियम :
14 दिसम्बर, 3138 ई.पू.; 9:30 बजे / दिल्ली
स्टेलेरियम :
09 जनवरी, 3137 ई.पू.; 06:00

अश्वमेधिका
पर्व
14/85/4,8

3102

माघ महीने की शुक्ल पक्ष की द्वादशी वाले
दिन पुष्य नक्षत्र में वीर योद्धा अर्जुन के संरक्षण
में यज्ञ का घोड़ा वापिस लौटा और अगली
पूर्णिमा को अश्वमेध यज्ञ प्रारम्भ कर दिया गया

प्लैनेटेरियम :
3 मार्च, 3102 ई.पू.; समय 10:30 बजे / द्वारका
स्टेलेरियम :
29 मार्च, 3102 ई.पू.; 14:35

मौसल पर्व 16/2/18-19

3103

युद्ध के 36 वर्ष बाद, द्वारका से देखा गया
सूर्यग्रहण, जब द्वारका नगरी डूब गई व यदुवंश
का विनाश हो गया 

प्लैनेटेरियम :
24 जनवरी, 3101 ई.पू.; 08:00 बजे / दिल्ली
स्टेलेरियम :
19 फरवरी, 3101 ई.पू.; 07:20

आदि पर्व 1/2/13; दासगीतिका 3

3102

युद्ध के 37 वर्ष बाद, कलियुग प्रारंभ से पहले
देखा गया ग्रहों का अद्भुत संयोग; मेष तथा
मीन राशि में स्थित सभी सातों ग्रह सूर्य,
चन्द्रमा, शुक्र, बृहस्पति, मंगल, बुद्ध व शनि ।  

संदर्भ: परिमल प्रकाशन की नौं खण्डोंवाली महाभारत (2008 संस्करण) से हैं, जिसका अनुवाद एम. एन. दत्त द्वारा किया गया है – ये सब सुक्थांकर जी के क्रिटिकल संस्करण में शामिल हैं ।

3. पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड के एम.डी. और पतंजलि योगपीठ हरिद्वार के सह-संस्थापक आचार्य
बालकृष्ण जी को भेजा गया लेख
(13. 9. 2020)

लेखिका – सरोज बाला

युगों की अवधारणा : व्याख्या एवं स्पष्टीकरण – सार

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मनुस्मृति1 (1/65-71) के अनुसार, मानव वर्षों और दिव्य वर्षों में चतुर्युग के विवरण का सारांश निम्नलिखित हैः-

युग
मुख्य अवधि
संध्या + संध्यांश
कुल अवधि
1 दिव्य वर्ष=360 मानव वर्ष
(इसलिए 360 से गुणा)
सतयुग
4000
400+400
4800 वर्ष
17, 28, 000
त्रेतायुग
3000
300+300
3600 वर्ष
12, 96, 000
द्वापर युग
2000
200+200
2400 वर्ष
8, 64, 000
कलियुग
1000
100+100
1200 वर्ष
4, 32, 000
कुल
10,000
2000
12,000 वर्ष
43,20,000 वर्ष

कई प्राचीन एवं आधुनिक वैज्ञानिकों एवं विद्वानों का मानना है कि चतुर्युग (सतयुग, त्रेता युग, द्वापर युग और कलियुग) में मूल रूप से केवल 12,000 मानव वर्ष ही थे। कुछ अल्पाधिक वर्षों सहित चतुर्युग के अवरोही तथा आरोही क्रम भी थे। परन्तु सुदूर प्राचीन काल में किसी समय एक मानव वर्ष को देवताओं के एक दिव्य दिवस के बराबर मानकर चतुर्युग को 12,000 दिव्य वर्षों का मान लिया गया (सूर्य की उत्तरायण चाल के 180 दिन + सूर्य की दक्षिणायण चाल के 180 दिन = 360)। इसके परिणामस्वरूप चतुर्युग को 43,20,000 वर्षों (12000 x 360) का मान लिया गया था।

मनुष्यों के लिये ‘दिव्य वर्ष’ लागू करने का क्या औचित्य हो सकता था और फिर सूर्य की उत्तरायण और दक्षिणयाण चाल के 360 दिनों के साथ चतुर्युग के 12000 वर्षों को गुणा करने का भी क्या औचित्य हो सकता था?

संस्कृत के प्रख्यात विद्वान, मेधातिथि ने चतुर्युगों की इस व्याख्या में आई त्रुटि पर विचार करने के पश्चात चतुर्युग की अवधि को 12000 मानव वर्ष ही निर्धारित किया था। पिछले 60 वर्षों में कई विद्वानों, संतों और वैज्ञानिकों ने भी श्री मेधातिथि के इस विचार से सहमति प्रकट की है। जग्गी वासुदेव जी, स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरी, पण्डित भगवद्दत्त सत्याश्रवा, श्री के. एम. गांगुली, श्री रिचर्ड थॉम्पसन और कई अन्य विद्वानों ने 12000 मानव वर्षों के चतुर्युग की व्याख्या करते हुए कई पुस्तकें एवं आलेख लिखे हैं और व्याख्यान भी दिए हैं। इनके माध्यम से उन्होंने चतुर्युग की इस अवधारणा का औचित्य भी समझाया है।

आधुनिक खगोलविदों के अनुसार विषुव (equinox) प्रत्येक 72 वर्षों में एक डिग्री और 25920 वर्षों में 360 डिग्री का अग्रगमण करते हैं।

इस प्रकार लगभग 50.3 सेकेन्ड चाप प्रति वर्ष की दर क्रांतिवृत्त पथ पर पश्चिम की ओर संचलन करते हैं। कुल 27 नक्षत्र होने के कारण, विषुव 960 वर्षों में एक नक्षत्र से और 2160 वर्षों में एक राशि से पीछे रह जाते हैं। वर्तमान में शरदकालीन विषुव कन्या और सिंह राशि के बीच है। इसीलिए तो वसंतकालीन विषुव मीन राशि और कुम्भ राशि के बीच में है। रामायण युग के दौरान 7100 वर्ष पूर्व वसन्तकालीन विषुव मिथुन राशि में पुर्नवसु नक्षत्र में था। इस प्रकार यह आधुनिक स्थिति से लगभग आठ नक्षत्र पीछे था। यह तथ्य आधुनिक खगोलशास्त्रियों द्वारा माना गया है। यदि घटते और बढ़ते युग चक्र के 24000 वर्षों को 25920 वर्षों से बदल दिया जाता है तो प्राचीन भारतीय खगोल विज्ञान की सभी व्याख्याएं सही और सटीक सिद्ध हो जाती हैं।

सुप्रसिद्ध इतिहासकार पंडित भगवददत्त सत्याश्रवा ने अपनी पुस्तक ‘भारतवर्ष का बृहद इतिहास’ में यह बताया है कि प्रभु श्रीराम का युग त्रेता और द्वापर की संधि अवधि में था और यह विक्रम संवत के शुरू होने से लगभग 5200 वर्ष पहले का समय था। उन्होंने यह भी कहा है कि श्री कृष्ण का जन्म द्वापर युग के अंतिम समय में हुआ था और उनके महानिर्वाण के पश्चात कलियुग शुरू हुआ। यह विक्रम संवत से लगभग 3200 वर्ष पहले का समय था। इस प्रकार इन्होंने रामायण और महाभारत के युगों के बीच लगभग 2000 वर्षों का अंतराल दिया। श्री सत्याश्रवा ने दृढ़तापूर्वक कहा कि त्रेता और द्वापर युगों में निश्चित रूप से लाखों वर्ष की अवधि नहीं होती (सत्याश्रवा 2000, सातवां अध्याय)।

उन्होंने चतुर्युगों के अवरोही और आरोही चक्र के बीच अंतराल की बहुत अलग व्याख्या की है जिसका उद्देश्य 24000 वर्ष के युगचक्र का 25920 वर्षों के युग चक्र के साथ सामंजस्य स्थापित करना भी है। उन्होंने सतयुग से पहले प्रचलित देवयुग (दिव्य युग) का संदर्भ देते हुए रामायण और महाभारत के पाठ से उन उद्धरणों का भी संदर्भ दिया है जिनमें कृत युग से पहले देव युग के प्रचलन का प्रसंग है। इस प्रकार उन्होंने दिव्य युग शब्द की अभिव्यक्ति के कारण पैदा हुई भ्रान्तियों को भी समझाने का प्रयत्न किया। उन्होंने यह भी कहा कि अवरोही और आरोही युगचक्रों के बीच में कुछ अतिरिक्त वर्ष भी हो सकते हैं।

ध्यान देने योग्य बात यह है कि तारामंडल सॉफ्टवेयर का उपयोग करके रामायण और महाभारत के खगोलीय सन्दर्भों का तिथिकरण भगवदृत्त सत्यश्रवा द्वारा दिए गए तथ्यों को सही साबित करता है। रामायण में वर्णित घटनाओं की खगोलीय तिथियां 5100 ईसा पूर्व से संबंध रखती हैं जबकि महाभारत की खगोलीय तिथियां उन घटनाओं से संबंधित हैं जो 3100 वर्ष ईसा पूर्व में घटित हुई थीं । इस प्रकार आधुनिक तारामंडल सॉफ्टवेयर भी रामायण तथा महाभारत में 2000 साल का अंतराल ही देती हैं ।

एक और बात जो ध्यान देने योग्य है वो ये कि अधिकतर प्राचीन गणनाओं में एक वर्ष की अवधि 360 दिन मानी गई है जबकि वास्तव में एक वर्ष में 365 दिन, 5 घंटे, 48 मिनट और 46 सैकेन्ड होते हैं। एक वर्ष की लम्बाई में इस अंतर को युगों की अवधि में समायोजित करना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त, यदि हम एक चतुर्युग की अवधि 43,20,000 वर्ष मानते हैं तो क्या हम यह एलान करने के लिए तैयार हैं कि कलियुग की अवधि 4,32,000 वर्ष है जिसमें से 4,27,000 वर्ष अभी शेष हैं? क्या हम यह सिद्ध करने का सामर्थ्य रखते हैं कि श्रीराम के त्रेता युग और श्रीकृष्ण के द्वापर युग के बीच 9,27,000 वर्ष के अंतराल के बीच क्या घटनाएं घटित हुई? क्या रामायण के सन्दर्भों का कोई भी वैज्ञानिक प्रमाण नौ लाख वर्ष पहले से जोड़ा जा सकता है? क्या रामायण को नौ लाख वर्ष पुराना बता कर हम अपने इतिहास को मिथ्या कल्पना के क्षेत्र में नहीं धकेल रहे हैं ?

इसलिए हम अपने सन्तों और विद्वानों को चतुर्युग की परंपरागत व्याख्या की पुनर्समीक्षा करने का विनम्र निवेदन करते हैं। युगों के अर्थ में आई विसंगतियों को दूर करने के पश्चात् ही हम रामायण एवं महाभारत को काल्पनिकता के क्षेत्र से निकालकर वास्तविक प्राचीन इतिहास के क्षेत्र में ला सकेंगे जिससे उनका वास्तव में संबंध हैं। तत्पश्चात, हम विश्व के समक्ष विश्वसनीयता से दावा कर पाएंगे कि भारत की सभ्यता वर्तमान नूतन युग में विश्व की प्राचीनतम सभ्यता है तथा आर्य लोग भारतवर्ष के ही मूल निवासी थे जो हजारों वर्षों से स्वदेशी वैदिक सभ्यता का विकास करते आ रहे हैं।

4. श्रीराम सांस्कृतिक शोध संसथान के संस्थापक राम अवतार जी की पुस्तक
‘जहाँ जहाँ राम चरण चली जाहीं’ के लिए लिखा लेख, 2020

लेखिका – सरोज बाला

श्रीराम जी के युग की ऐतिहासिकता – लेख का सार

भारतीय राजस्व सेवा की पूर्व अधिकारी
वेदों पर वैज्ञानक शोध संस्थान की पूर्व निदेशक

सम्पूर्ण लेख पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें -

यह लेख मेरी पुस्तक ‘रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी’ पर आधारित है। महर्षि वाल्मीकि द्वारा मूल रामायण की रचना के बाद रामायण के 300 से भी अधिक संस्करण छप चुके हैं। जब श्री राम की जीवनगाथा का व्याख्यान करने वाले सैकड़ों संस्करण पहले से ही विद्यमान हैं तो प्रश्न है उठता है कि एक और पुस्तक लिखने का औचित्य क्या है और इसे पाठक क्यों पढ़ें? इस प्रश्न का उत्तर देना अत्यावश्यक है। ऐसा प्रतीत होता है कि अब तक लिखी गई लगभग सभी रामायणों का लेखन भक्तिभाव की दृष्टि से हुआ है। इन्हें पढ़कर पाठक सोच में पड़ जाते हैं कि श्रीराम काल्पनिक थे या वास्तविक, वो भगवान थे या फिर एक दिव्य इन्सान।

क्या श्रीराम का वास्तव में ही अयोध्या में जन्म हुआ था और क्या उन्होंने सचमुच सज्जन पुरुषों की राक्षसों के अत्याचारों से रक्षा करने के लिए अयोध्या से लंका तक की यात्रा की थी? इन प्रश्नों का बहुआयामी वैज्ञानिक प्रमाणों के माध्यम से उत्तर ढ़ूँढकर उन्हें महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण की रोचक कहानी में बुनकर बताना पुस्तक रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी’ को लिखने का मुख्य उद्देश्य है।

पहले समस्त खगोलीय संदर्भ क्रमिक रूप से रामायण से निकाले गए। फिर प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर (संस्करण 4.1) तथा स्टेलेरियम सॉफ्टवेयर (संस्करण 0.15.2 / 2017) द्वारा दर्शाये गए आकाशीय दृश्यों के माध्यम से इन सन्दर्भों का खगोलीय तिथि निर्धारण किया गया। पाठक यह देखकर आनंदित अनुभव कर सकते हैं कि जब श्रीराम का जन्म हुआ था तो पांच ग्रहों को अपने अपने उच्च स्थान में दर्शाते हुए आकाश किस प्रकार सुंदर और चमकदार दिखाई दे रहा था और जब हनुमान जी द्वारा अशोक वाटिका में सीता को रावण द्वारा धमकाते हुए देखा गया तो ग्रहण से ग्रसित चंद्रमा लंका के आकाश में दिखाई दिया।

देखें वाल्मीकि जी द्वारा श्री राम के जन्म के समय बताई गयी सभी खगोलीय स्थितियों को, जिन्हें अयोध्या के अक्षांश और रेखांश से 10 जनवरी 5114 वर्ष ई. पू. को दोपहर 12 बजे से 2 बजे के बीच के समय मे आकाश में देखा जा सकता था। यह चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि थी जिस समय समस्त भारत में आजतक रामनवमी मनाई जाती है। लेख में आगे चलकर देखें दिनांक 7 अक्टूबर, 5077 वर्ष ई. पू. पौष मॉस की अमावस्या को दोपहर के समय सूर्य ग्रहण दर्शाता हुआ व्योमचित्र, जिसे पंचवटी से देखा जा सकता था। मंगल ग्रह मध्य मे था, एक तरफ बुध, शुक्र और बृहस्पति थे और दूसरी तरफ सूर्य, चन्द्रमा और शनि ग्रह साफ देखे जा सकते थे।

लेख में यह भी पढ़ें कि रावण लंका में अशोक वाटिका में सीता की ओर बढ रहा था। रावण को अपने पास आता देखकर सीता का मुख पूर्णिमा की रात के ग्रहण से ग्रसित चन्द्रमा के समान दिखाई दे रहा था, जो उस समय लंका के आकाश मे देखा गया था। वाल्मीकी द्वारा वर्णित पौष की पहली पूर्णिमा की रात्रि के इस चन्द्रग्रहण को प्लेनेटेरियम सॉफ्टवेयर ने कोलंबो के अक्षांश और रेखांश से दिनांक 12 सितंबर, 5076 को शाम 4:15 बजे से 6:55 बजे तक दिखाया है। व्योमाव्हित्र भी आप देख सकते हैं।

पुरातत्व तथा पुरा-वनस्पति विज्ञान, भूगोल तथा समुद्र विज्ञान, रिमोट सेंसिंग और आनुवंशिक अध्ययन भी रामायण में वर्णित घटनाओं के इस खगोलीय काल निर्धारण की पुष्टि करते हैं। नवीनतम पुरातात्त्विक उत्खननों में ऐसी अनेकों वस्तुएँ मिली हैं जिनके संदर्भ रामायण में मिलते हैं, उदाहरणत: ताँबे के धनुष व बाण, सोने चाँदी के आभूषण, बहुमूल्य पत्थरों व मोतियों के गहने, टैराकोटा के बर्तन व अन्य वस्तुएँ तथा विभिन्न प्रकार के पेड़, पौधे व जड़ी बूटियाँ, जिनका कार्बन तिथिकरण इन्हें 5000 वर्ष ईसापूर्व के लगभग का बताता है ।

इस लेख में दिए गए रामसेतु से सम्बंधित तथ्य चित्रों सहित दिए गए हैं जो आपको अचंभित कर देंगे - पढ़ें कैसे NIO, गोवा द्वारा 7000 वर्ष पहले समुद्र का जलस्तर लगभग 3 फुट नीचे बताया गया और नासा के दूर संवेदी चित्रों ने बताया कि रामसेतु लगभग ३ मीटर नीचे जलमग्न है । जाने कैसे रामसेतु का विध्वंस करने के सभी प्रयत्न विफल हुए ।

भगवान राम ने हजारों वर्षों से एक आदर्श पुत्र, एक आदर्श भाई, आदर्श पति, एक आदर्श समाज सुधारक, तथा आदर्श शासक के रूप में भारत के लोगों को प्रेरित किया है। यह लेख आपको य्ढ़ भी बताएगा कि आखिर वो नर से नारायण कैसे बन गए ।

5. सरस्वती के स्थान पर गंगा का सर्व वन्दित होना - कुछ रोचक वैज्ञानिक तथ्य

आयकर पत्रिका, दिल्ली 2018 में प्रकाशित

लेखिका – सरोज बाला

पूरा लेख देखने के लिए पीडीएफ लिंक पर क्लिक करें -

विश्व विख्यात भूवैज्ञानिक डॉ. खड्ग सिंह वाल्दिया ने अपनी पुस्तक “एक थी नदी सरस्वती” में लिखा है कि एक तरफ सिन्धु तथा एक तरफ गंगा के सदानीरा नदी समूहों के बीच का सपाट मैदान वास्तव में ऋग्वेद से महाभारत काल तक की वैदिक सभ्यता की कहानी कहता है। यहां पर सरस्वती नदी समूह बहता था जिसका प्रवाह विपुल था, जिसका आंचल शस्य श्यामला था, जिसके किनारे समृदध नगर बसे हुए थे तथा जिसके मैदानों में गौरवशाली वैदिक सभ्यता विकसित तथा पल्लवित हुई थी। परन्तु धीरे-धीरे टैक्टॉनिक मूवमैंट, भूकंप, जलवायु परिवर्तन तथा प्राकृतिक घटनाक्रम के कारण यह नदी विलुप्त हो गई। हुआ यह कि सरस्वती नदी की पूर्वी शाखा यमुना धीरे-धीरे खिसकते हुए गंगा की धारा में विलीन हो गई। फिर कुछ समय पश्चात् सरस्वती की पश्चिमी शाखा सतलुज व्यास के माध्यम से सिन्धु नदी की हो गई।

इस प्रकार लगभग 8000 वर्ष पूर्व सरस्वती ने अपनी सदानीरा सहायक नदी यमुना का विलय गंगा में कर दिया और लगभग 7000 वर्ष सतलुज चली गई व्यास के माध्यम से सिन्धु में विलीन होने। तत्पश्चात् किसी बड़े भूकंप के कारण सरस्वती तथा दृशद्वती नदियों का अपने ग्लेशियरों से संपर्क टूट गया। इस प्रकार यह कहीं भूमिगत हो, कहीं सरोवरों के रूप में औऱ कहीं बरसाती नदी-नालों के रूप में बहती दिखाई देने लगी। उधर भागीरथी का संगम अलकनन्दा से हुआ और फिर प्रयाग में यमुना भी आ मिली। इस प्रकार सरस्वती का स्थान गंगा ने ले लिया और बन गई सर्व-वन्दित, पवित्र और महान नदी जो अपने किनारे बसे करोड़ों लोगों का पोषण करती है औऱ उनके मलरूपी पापों को भी धो डालती है।

सरस्वती हमारी प्राचीन एवं समृद्ध विरासत की प्रतीक है जो हमें यह स्मरण कराती है कि हमारी मातृभूमि विश्व की प्राचीनतम वैदिक सभ्यता की सृष्टा तथा सृजक है, जबकि कल्याणकारी गंगा आज करोड़ों भारतवासियों को सुख एवं समृद्धि प्रदान करती है तथा हमारी इस बहुमूल्य सास्कृतिक विरासत की निरन्तरता की भी प्रतीक है।

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